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ग्नाश्च॒ यन्नर॑श्च वावृ॒धन्त॒ विश्वे॑ दे॒वासो॑ न॒रां स्वगू॑र्ताः। प्रैभ्य॑ इन्द्रावरुणा महि॒त्वा द्यौश्च॑ पृथिवि भूतमु॒र्वी ॥४॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

gnāś ca yan naraś ca vāvṛdhanta viśve devāso narāṁ svagūrtāḥ | praibhya indrāvaruṇā mahitvā dyauś ca pṛthivi bhūtam urvī ||

पद पाठ

ग्नाः। च॒। यत्। नरः॑। च॒। व॒वृ॒धन्त॑। विश्वे॑। दे॒वासः॑। न॒राम्। स्वऽगू॑र्ताः। प्र। ए॒भ्यः॒। इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒। म॒हि॒ऽत्वा। द्यौः। च॒। पृ॒थि॒वि॒। भू॒त॒म्। उ॒र्वी इति॑ ॥४॥

ऋग्वेद » मण्डल:6» सूक्त:68» मन्त्र:4 | अष्टक:5» अध्याय:1» वर्ग:11» मन्त्र:4 | मण्डल:6» अनुवाक:6» मन्त्र:4


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वे किन के साथ क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जो (विश्वे, देवासः) समस्त विद्वान् जन (नरः, च) और विद्वानों के बीच अग्रगामी (स्वगूर्त्ताः) अपने पराक्रम से उद्यमी जन (नराम्) मनुष्यों की (ग्नाः) वाणी तथा अपनी (च) भी वाणियों को प्राप्त होकर (वावृधन्त) सब ओर से बढ़ते हैं (प्र, एभ्यः) उत्कर्षण से इनसे (इन्द्रावरुणा) बिजुली और सूर्य्य के समान वा (उर्वी) विस्तृत (पृथिवि) पृथिवी (द्यौः, च) और प्रकाश के समान वर्त्तमान (महित्वा) महिमा से (भूतम्) प्रसिद्ध होवें। वे सब जन मनुष्यों से सत्कार करने योग्य हैं ॥४॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे राजन् ! जो विद्या, धर्म और विनय से बढ़ते हैं, उन उद्यमियों के साथ इन प्रजाजनों की पालना करो ॥४॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तौ कैस्सह किं कुर्यातामित्याह ॥

अन्वय:

यद्ये विश्वे देवासो नरश्च स्वगूर्त्ता नरां ग्नाः स्वकीयाश्च ग्नाः प्राप्य वावृधन्त प्रैभ्य इन्द्रावरुणोर्वी पृथिवि द्यौश्चेव वर्त्तमानौ महित्वा भूतं वर्धेते ते सर्वे मनुष्यैः सत्कर्त्तव्याः सन्ति ॥४॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ग्नाः) वाचः। ग्नेति वाङ्नाम। (निघं०१.११) (च) (यत्) ये (नरः) विद्वन्नायकाः (च) (वावृधन्त) सर्वतो वर्धन्ते (विश्वे) सर्वे (देवासः) (नराम्) मनुष्याणाम् (स्वगूर्त्ताः) स्वेन पराक्रमेणोद्यमिनः (प्र) (एभ्यः) (इन्द्रावरुणा) विद्युत्सूर्याविव (महित्वा) महिम्ना (द्यौः) (च) (पृथिवि) भूमिः (भूतम्) भवेताम् (उर्वी) बहुत्वे ॥४॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे राजन् ! ये विद्याधर्मविनयैर्वर्धन्ते तैरुद्यमिभिः सहेमाः प्रजाः पालय ॥४॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे राजा ! जे विद्या, धर्म, विनयाने वाढतात त्या उद्योगी लोकांबरोबर प्रजेचे पालन कर. ॥ ४ ॥